चौहत्तर वर्ष पहले भारत विदेशी शासन की बेड़ियों से मुक्त हुआ था। 15 अगस्त 1947 को हमारे स्वतंत्रता संग्राम ने एक खास मंजिल तय की। लेकिन वह आखिरी मुकाम नहीं था। भारत की आजादी की लड़ाई की यही विशेषता थी कि विदेशी राज के खात्मे को कभी अंतिम उद्देश्य नहीं माना गया। बल्कि उसे उन सपनों को साकार करने का माध्यम समझा गया, जो हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने देखे थे।
इन सपनों के बनने की लंबी कथा है। इसकी शुरुआत यह समझ बनने से हुई कि अंग्रेजों के शोषण से भारत भूमि के सभी जन-समूह दरिद्र हुए हैं। स्वाभाविक रूप से स्वतंत्रता को देश के आर्थिक दोहन से मुक्ति और सभी जन-समुदायों की खुशहाली के रूप में समझा गया। हमारे तब के मनीषी भारत की बहुलता और विभिन्नताओं से परिचित थे। अत: उदारता और सबको साथ लेकर चलने का तत्व उन्होंने नवोदित भारतीय राष्ट्रवाद के विचार से जोड़ा। महात्मा गांधी के आगमन के साथ स्वतंत्रता आंदोलन में जन-भागीदारी की शुरुआत हुई।
हजारों लोगों की प्रत्यक्ष सहभागिता ने वह जन-चेतना पैदा की, जो आगे चल कर हमारे लोकतंत्र का आधार बनी। लोकतंत्र की प्रगाढ़ होती आकांक्षाओं के साथ पारंपरिक रूप से शोषित-उत्पीड़ित समूहों को न्याय दिलाने का संकल्प राष्ट्रवाद के आधारभूत मूल्यों में शामिल हुआ। अत: इन जन-समुदायों को तरक्की के विशेष अवसर देने का वादा भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन ने किया। मगर बात यहीं तक सीमित नहीं थी। जब आजादी दूर थी, तभी इस आंदोलन के नेता देश की भावी विकास नीति पर चर्चा कर रहे थे। इस बिंदु पर महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू के मतभेद जग-जाहिर हैं। परंतु रेखांकित करने का पहलू यह है कि प्रगति का एजेंडा स्वतंत्रता संग्राम का अभिन्ना अंग बना और जब आजादी आई तो देश ने उस एजेंडे को अपनाया। देश के बंटवारे, सांप्रदायिक उन्माद, बड़े पैमाने पर खून-खराबे और आबादी की अदला-बदली की त्रासदी के बावजूद यह एजेंडा ओझल नहीं हुआ। बल्कि प्रगति के सपने ने तब उस दर्द से उबरने में भारतवासियों की मदद की। आज यह इसलिए याद करने योग्य है, क्योंकि उस सपने के कई हिस्से अधूरे हैं।
आज स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर यह हम सबके लिए आत्म-निरीक्षण का प्रश्न है कि आजादी से जो बोध होता है, क्या वह सभी भारतवासियों को उपलब्ध है? उत्सव और प्राप्त उपलब्धियों पर गौरव के क्षणों में भी हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आज भी करोड़ों देशवासी बुनियादी सुविधाओं एवं गरिमामय जीवन के लिए अनिवार्य अवसरों से वंचित हैं। जब तक ऐसा है, स्वतंत्रता सेनानियों का सपना साकार नहीं होगा। तब तक उनका बलिदान हमारी अंतर्चेतना पर बोझ बना रहेगा। गुजरे 74 साल की हमारी सफलताएं गर्व करने योग्य हैं, लेकिन आज के दिन हमें केवल उन पर नहीं, बल्कि उन विफलताओं पर भी ध्यान देना चाहिए, जिन पर विजय पाए बिना हमारा स्वतंत्रता संग्राम अपनी अंतिम मंजिल तक नहीं पहुंच सकता। कई लक्ष्य ऐसे हैं जो अभी हमारी पहुंच से दूर बने हुए हैं उन्हें हासिल करना जरूरी है।
अधिकतम तक नहीं बल्कि सभी तक पहुंचने वाली आजादी का ही ख्वाब हमने देखा था वह लक्ष्य पाना बाकी है। इस पड़ाव पर हम आगे के लिए संकल्प साधें और बढ़ें नई मंजिलों की ओर। हम साथ मिलकर चल रहे हैं तो चुनौतियों को हल करने के रास्ते तलाशना भी सीखते जाएंगे। देश की समस्याओं के समाधान भी तलाश ही पाएंगे।