आइये हम याद करते हैं इतिहास के उस क्रूरतम दिन का, जब एक ही कब्र में 150 क्रांतिकारियों कि लाशों को दफना दिया गया था। वो जंग, जो आजादी के दीवानों ने अगर जीत ली होती तो शायद बिहार पर अंग्रेजों का कब्जा खत्म हो जाता। लेकिन इतिहास ने चतरा के साथ हमेशा से नाइंसाफी ही की। झारखंड का एक ऐसा जिला तो जो आज भी कमोबेश वैसा ही है जैसा कि 165 साल पहले था।
साल 1857 की सबसे बड़ी जंगों में एक ‘बैटल ऑफ चतरा’ की कहानी आज तक लोगों कि जुबानी ही चली आ रही है। खून से सने इतिहास के पीले पन्नों को खंगालने की कोशिश बहुत ही कम ही हुई। कितने क्रांतिकारियों ने बलिदान दिया, कितने अंग्रेज सैनिक मारे गए और इस जंग को लेकर फोर्ट विलियम्स कोलकाता की कितनी पैनी नजर थी जैसी तमाम बातें अलग-अलग लाईब्रेरीयों में दीमकों का पेट भरती रही है। लेकिन आज हम आपको 2 अक्टूबर 1857 का आंखों देखा हाल बताएंगे। क्योंकि आपको भी जानना चाहिए कि अंग्रेजों के लिए तोपों, हाथियों और हथियारों से लैस रामगढ़ बटालियन से बागी हुए 3 हजार क्रांतिकारियों रोकना कितना जरूरी था। इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उन दिनों हर दिन दर्जनों बार टेलिग्राफ पर संदेशों का ट्रैफिक जाम लग जा रहा था। क्यौंकि चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ से लेकर बंगाल सरकार के सेक्रेट्री तक इस युद्ध को जीतने के लिए संदेश भेज रहे थे। झारखंड कि लाइब्रेरीयों में ये रिकॉर्ड भले ही नहीं मिलते हों लेकिन ब्रिटिश लाइब्रेरी, अमेरिका यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी और भारत के ओस्मानिया यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी में आज भी बैटल ऑफ चतरा के इतिहास के पन्ने अपने पलटे जाने का इंतजार कर रह हैं।
1857 में लंदन से प्रकाशित और ब्रिटिश संसद की दोनों सदनों में पेश की गई रिपोर्ट मिनट्स इन दी ईस्ट इंडिया में चतरा में हुई इस जंग को ‘बैटल ऑफ चतरा’ कहा गया। इसी किताब में एक टेलीग्राम कर्नल फिशर का है जिसे 14 सितंबर 1857 को दोपहर में कमांडर इन चीफ फोर्ट विलियम को भेजा गया। कर्नल फिशर ने लिखा तार किया कि आज सुबह विद्रोही छोटानागपुर से निकल गए हैं कैप्टन डॉल्टन के मुताबिक ये लोग पलामू होते हुए रोहतासगढ़ की ओर जाने वाले हैं। मैं इन्हें चतरा और कुंदा के मार्ग पर रोकने के लिए तैयार हूं।’ 24 सितंबर 1857 को कर्नल फिशर ने चीफ ऑफ स्टाफ को टेलीग्राम संदेश में लिखा, मेजर इंग्लिश को संदेश भेज दिया जाए कि विद्रोहियों का पता लगते ही उन पर आक्रमण किया जाएगा। इसी तरह 26 सितंबर 1857 को कर्नल फिशर ने चतरा से शेरघाटी जाने वाली सड़क को हर हाल में तोड़ने की सलाह दी ताकि विद्रोही शेरघाटी की ओर ना सके। हजारों की संख्या में रामगढ़ नेटीव इन्फ्रेंट्री के बागी जवानों को घेरने के लिए चारों तरफ से ईस्ट इंडिया कंपनी और ब्रिटिश फौज के साथ सिखों की सेना भी लगी थी। इसी दौरान कर्नल फिशर के रेजीमेंट में कॉलरा फैल गई, जिससे कई अंग्रेजी सैनिक बीमार हो गए जिनमें दो की मौत गई।
इसी बीच 28 सितंबर 1857 को हजारीबाग से मेजर इंग्लिश ने कोलकाता संदेश भेजा कि ‘अगर दुश्मनों ने पहले पोजिशन ले ली तो उन्हें हराना मुश्किल होगा। मेजर सिंपसन के साथ जो सिख बटालियन है वो अनट्रेंड हैं।’ 29 सितंबर 1857 को कर्नल फिशर की ओर से कोलकाता भेजे गए संदेश के मुताबिक, ‘विद्रोही बालूमाथ पहुंच चुके थे। जिसके बाद विद्रोही सैनिकों के चतरा या कुंदा जाने कि पुष्टि हुई। साथ ही उनके पास 4 तोपें होने के संकेत भी मिले।’ ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारियों को ये जानकारी मिलते ही जैसे होश उड़ गए, क्यौंकि चार तोपों का मतलब वे अच्छी तरह जानते थे।
‘बैटल ऑफ चतरा’ के दस्तावेजों से पता चलता है कि अंग्रेजी सेना में भी आपसी तालमेल की कमी थी, कई बार चतरा-पलामू-हजारीबाग और शेरघाटी में तैनात अधिकारियों ने अपने सिनीयरों से एक दूसरे की शिकायत कि। इसी बीच 30 सितंबर को शेरघाटी के डिप्टी मजिस्ट्रेट ने बंगाल सरकार के सेक्रेट्री को संदेश भेजा कि विद्रोही चतरा पहुंच चुके हैं। इधर क्रांतिकारी 30 सितंबर को चतरा में डेरा डाल चुके थे। उन्होंने चतरा के हरजिवन तालाब के पास अपना कैंप बना लिया। जिसके बाद जंग ए आजादी के सिपाहियों को देख चतरा का दारोगा शहर छोड़ कर फरार हो गया, साथ ही हंटरगंज का दारोगा भी भाग गया।
‘बैटल ऑफ चतरा’ का सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज है इंडियन हिस्टॉरिकल रिकॉर्ड कमीशन की दसवीं बैठक की प्रोसिडिंग 1927 में रंगून में हुई। इस बैठक में प्रोफेसर जे सामदार ने बहुत ही अहम जानकारियां दीं। उन्होंने अपने लेख टू फारगोटेन म्यूनिटी हिरोज में इस जंग के महत्व को बहुत ही विस्तार से पेश किया।
4 अक्टूबर को सुबह सवा 9 बजे मेजर इंग्लिश ने कोलकाता संदेश दिया की, ‘हमें बहुत नुकसान हुआ है, हालांकि हमने विद्रोही सैनिकों के हथियारों पर कब्जा कर लिया साथ ही दस हाथी भी हमारे कब्जे में है। हमारे 53वें हर मेजेस्टी के 36 जवान मारे गए।’ इसमें कोई शक नहीं कि रामगढ़ रेजीमेंट के बागी जवानों ने अंग्रेजी सेना के छक्के छुड़ा दिए। कई दिनों से जंगल-जंगल भटक रही बागी सेना के हाथों अंग्रेजों के 56 सैनिकों की मौत अपने आप में वीरता की कहानी बताने के लिए काफी है।
चतरा के तत्कालीन कमिश्नर जे सिंपसन ने लिखा है कि, ‘3 अक्टूबर को हमने एक ही खड्डे में रामगढ़ बटालियन के 77 बागियों के शवों को डाल दिया। सूबेदार जय मंगल पांडेय और नादिर अली जो कि घायल हो गए थे उन्हें जंगल से पकड़कर मेरे पास लाया गया और 1857 के कानून 17 के तहत मौत की सजा सुनाई गई। उन्हें उसी जगह फांसी दी गई जहां हमारे सैनिक मारे गए थे।
‘अंग्रजों को हिन्दुस्तान से बेदखल करने के लिए उनके पास तैयारियां तो पूरी थीं लेकिन ऐताहिसक दस्तावेजों की मानें तो स्थानीय लोगों का भरोसा जीतने में वे नाकाम रहे जिसकी वजह से चतरा के स्थानीय लोगों ने उनकी मुखबिरी किया था। साथ ही टेलीग्राफ के तार नहीं काटने की भी चूक उनकी हार की बड़ी वजह बनीं। अगर वे वीर कुंवर सिंह का साथ देने में कामयाब हो जाते तो शायद देश का इतिहास कुछ और होता। अंग्रेजों के दस्तावेजों के मुताबिक चतरा के एक दो मंजिला मकान से क्रांतिकारी सैनिकों पर गोलियां चलाई गई थी। बहरहाल 3 हजार विद्रोही सैनिकों में 150 सैनिकों की शहादत हुई जिन्हें एक ही गड्ढे में डाल दिया गया जो बाद में तलाब बन गया। आज भी यहां एक स्मारक अपने इतिहास पर रो रहा है, इसी स्मारक से कुछ दूरी पर अंग्रेजों की भी कब्रें हैं जो जयमंगल पांडेय और नादिर अली की बहादुरी की गवाही दे रहे हैं। इस युद्ध की कहानी 1857 में लंदन से छपने वाले नामी अखबार इलिस्ट्रेड लंदन न्यूज में भी प्रकाशित हुई थी। चतरा के लोगों ने भले ही इस युद्ध के लिखित दस्तावेजों को सहेजने की जहमत नहीं उठाई हो लेकिन जय मंगल पांडेय और नादिर अली गीतों में हमेशा के लिए अमर हो गए। आज भी पुरानी पीढ़ी कभी-कभी, “जय मंगल पांडेय नादिर अली, दोनों सूबेदार रे, दोनों मिलकर फांसी चढ़े हरजीवन तालाब रे” गुनगुनानाती है।